Saturday, September 4, 2021

आधे अधूरे (नाटक) मोहन राकेश

 किताब - आधे अधूरे 

लेखक- मोहन राकेश

मूल्य - 160 रूपये

प्रकाशक - राधाकृष्ण पेपरबैक्स 

पृष्ठ -120


अक्सर हम सुनते हैं “जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि”, राकेश मोहन जी ने इस नाटक के जरिये इस उक्ति को चरितार्थ किया है। मोहन  राकेश जी का ये नाटक जनवरी-फरवरी 1969 में उस समय की अग्रणी पत्रिका ‘धर्मयुग’ में छपा था। 


इस नाटक पर कथानक की घटनाहीनता, प्रस्तावना की निर्रथकता, अनुभव क्षेत्र की संकीर्णता, एक ही अभिनेता द्वारा पॉंच भूमिकाएँ निभाने की फिजूल रंग युक्ति आदि न जाने कितने आरोप लगाकर इसे साधारण और महत्तवहीन सिद्ध करने के प्रयास किए गये। 


पर समय से अधिक ईमानदार और निर्मम मूल्यांकन कोई नहीं होता। किसी भी रचना की एक अनुपम कसौटी पाठकों का स्नेह होता है। 52 वर्षों बाद भी ये नाटक आधुनिक हिन्दी के एक महत्वपूर्ण,लोकप्रिय और समयसिद्ध नाटकों की श्रेणी में है। 


कुल 120 पेज में सिमटे इस नाटक में पांच पुरूषों की भूमिका एक ही व्यक्ति द्वारा किये जाने की प्रतिबद्धता इस नाटक का दर्शन है। 


एक कमरे पर ही पूरे नाटक का दृश्यांकन है। नाटक के मुख्य पात्र हैं:- 

स्त्री- उम्र चालीस,चेहरे पर यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष।

बड़ी लड़की- उम्र बीस से उपर नहीं।भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन।

छोटी लड़की - उम्र बारह और तेरह के बीच। भाव,स्वर,चाल-हर चीज में विद्रोह।

लड़का - उम्र इक्कीस के आसपास।चेहरे से यहां तक की हंसी से भी,झलकती खास तरह की कड़वाहट। 


का.सू.वा.(काले सूटवाला आदमी) जो इसके अलावा पुरूष-एक,

पुरूष-दो,पुरूष-तीन तथा पुरूष-चार की भूमिकाओं मे है। उम्र लगभग उनचास-पचास।

पुरूष एक का वेशान्तर-पतलून कमीज।जिंदगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट लिए।

पुरूष दो के रूप में - पतलून और बन्द गले का कट।अपने आप से संतुष्ट फिर भी आशंकित।

पुरूष तीन- हाथ में सिगरेट का डब्बा।लगातार सिगरेट पीता। अपनी सुविधा के अनुसार जीने का दर्शन।

पुरूष चार-पतलून के साथ पुरानी काट का लम्बा कोट।चेहरे पर बुजुर्ग होने का खासा एहसास।


इसकी कहानी के जरिये मोहन राकेश जी ने ये बताया है कि समय विराट घटनाओं और महान नायकों का नहीं है।यह आम आदमी की लघुता और तुच्छता का युग है। इस नाटक मे पात्रों की मन:स्थितियों और संवेदना की टकराहट को आन्तरिक विद्रोह के रूप में सघनता से प्रस्तुत किया गया है। 


यह नाटक स्त्री-पुरूष के बीच लगाव और तनाव का दस्तावेज है। महेन्द्रनाथ सावित्री से बहुत प्रेम करता है।सावित्री भी उसे बहुत चाहती रही होगी,लेकिन शादी के बाद उसकी अपेक्षाएँ बहुमुखी और अन्नत हैं।महेन्द्रनाथ की बेकारी की हालत मे सावित्री पर घर चलाने का दबाव है और जिंदगी मे कुछ ज्यादा हासिल न कर पाने का मलाल। बच्चों के बर्ताव से व्यथित सावित्री बची जिंदगी को एक पूरे,सम्पूर्ण पुरूष के साथ बिताने की इच्छा रखती है।


पत्नी की कमाई पर पलते महेन्द्रनाथ की हालत दयनीय है। वो कभी मालिक हुआ करता था पर आज महज ‘एक ठप्पा,एक रबर का टुकड़ा’ है। उसे पत्नी के पुरूष मित्रों के बारे में पता है। उनके बारे में बोलकर अपनी भड़ास निकालता है और अक्सर घर से बाहर चला जाता है।


बड़ी लड़की मनोज रूपी साथी पाकर घर से भाग जाती है परन्तु अतीत पीछा नहीं छोड़ता। पारिवारिक पृष्ठभूमि के तानों ने उसके अन्दर भी एक रिक्तता भर दी है।


लड़का निठल्ला है,पत्रिकाओं में अभिनेत्रीयों की रंगीन फोटो काटता है। उसे माँ से आक्रोश है और घर से चिढ़।


छोटी बेटी को माता-पिता,भाई-बहन किसी से अनुराग नहीं है। कैंची की तरह जुबान चलाती वो समय से पहले बड़ी हो गयी है। 


महेन्द्रनाथ,सिघानिया,जहमोहन और जुनेजा-ये अलग-अलग गुणों के चार पुरूष हैं। सावित्री ने महेन्द्रनाथ से शादी की पर आगे चलकर अधूरेपन और परिस्थितियों के जाल में उसने खुद का भरा-पूरा महसूस नहीं किया। नाटककार ने ये दर्शाया है कि अगर वो महेन्द्रनाथ की बजाय जगमोहन से रिश्ता जोड़ती तब भी वही स्थिती रहती क्योंकि जगमोहन में जुनेजा के गुण नहीं मिलते और ये दुश्चक्र चलता रहता।


ये रचना उस अधुरेपन का क्रूर उदबोधन है जो समाज में आम तो है पर सहज स्वीकार्य नहीं है।आज के 52 वर्ष पूर्व लिखा ये नाटक वाकई उस काल-खंड के हिसाब से एक साहसिक अभिव्यक्ति है।

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